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ब्रैम्पटन में खालिस्तान बनाने के लिए प्रदर्शन, कनाडा ने जो बोया वही काट रहा है

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ब्रैम्पटन में खालिस्तान बनाने के लिए प्रदर्शन, कनाडा ने जो बोया वही काट रहा है।6 नवंबर को कनाडा के शहर मिसिसॉगा में भारत विरोधी तत्वों ने खालिस्तान के पक्ष में एक नया जनमत संग्रह कराया था. हालांकि, भारत सरकार ने इस पर पहले से ही एतराज जताया था. जिस पर कनाडाई दूतावास के हाई कमिश्नर कैमरॉन मैकी ने कहा था कि कनाडा प्रतिबंधित सिख संगठनों द्वारा देश में कराए जा रहे खालिस्तान जनमत संग्रहों का समर्थन नहीं करता है.

और, इन्हें नहीं मानता है. लेकिन, इसके बावजूद कनाडा के स्थानीय प्रशासन ने खालिस्तानी संगठनों को सरकारी जगहें उपलब्ध कराईं. वहीं, सोशल मीडिया पर कनाडा का एक शहर ब्रैम्पटन भी ट्रेंडिंग टॉपिक में शामिल हुआ.

दरअसल, खालिस्तानी संगठनों ने इससे पहले ब्रैम्पटन में जनमत संग्रह कराया था. और, इसके लिए जमकर प्रचार किया था. खालिस्तानी जनमत संग्रह के लिए प्रचार के दौरान इन आतंकवादी संगठनों ने हिंदू विरोधी और भड़काऊ बैनर और पोस्टरों का इस्तेमाल किया था. जिसके खिलाफ वहां रह रहे हिंदू समुदाय ने ब्रैम्पटन के मेयर पैट्रिक ब्राउन से अपना विरोध जताया. बता दें कि पैट्रिक ब्राउन को हिंदूफोबिया और इंडोफोबिया बढ़ाने वाले नेता के तौर पर जाना जाता है. ब्राउन ने ही खालिस्तानी संगठनों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर सरकारी ऑडिटोरियम वगैरह दिए थे.

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कनाडा आतंकवादी संगठनों के समर्थन में खड़ा हो रहा है.

वैसे, कनाडा की कुल आबादी करीब 3 करोड़ 89 लाख है. और, इसमें अच्छा-खासा इजाफा हो रहा है. बता दें कि कनाडा की जनसंख्या में तेजी की सबसे बड़ी वजह प्रवासी हैं. क्योंकि, कनाडा सभी तरह कि विचारों और धर्म के लोगों के लिए विविधताओं से भरा देश है. यहां इस्लाम में मुस्लिम न माने जाने वाले अहमदिया मुसलमानों को भी जगह मिली हुई है. और, खालिस्तानी संगठनों को भी. वहीं, इसके कई शहरों में सिख आबादी इस कदर बढ़ चुकी है कि कनाडा की सरकार से लेकर इन शहरों के स्थानीय प्रशासन तक में खालिस्तान समर्थक नेताओं का दबदबा बढ़ने लगा है.

ये बताने की जरूरत इस वजह से पड़ी है कि खालिस्तानी संगठन भारत में खालिस्तान बनाने का सपना देख रहे हैं. लेकिन, वो शायद ही कभी पूरा होगा. क्योंकि, भारत में खालिस्तानी आतंकियों का कोई गढ़ और मजबूत समर्थकों का झुंड नहीं हैं. हां, एक बात जरूर तय है कि जो खालिस्तानी संगठन आज कनाडा में रहकर खालिस्तान बनाने के लिए जनमत संग्रह कर रहे हैं. वो भविष्य में कनाडा में ही खालिस्तान बनाने के लिए भी बवाल करने से पीछे नहीं हटेंगे. क्योंकि, कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो भी खालिस्तानी संगठनों को पोषित करने में पीछे नहीं हैं.

यह चौंकाने वाली बात ही कही जाएगी कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कनाडा खालिस्तान के आतंकियों के साथ भी खड़ा होने में नहीं कतरा रहा है. वैसे, कनाडा में खालिस्तानी संगठनों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर खुलेआम उत्पात मचाने की जो छूट दी गई है. वो आगे चलकर कनाडा के लिए ही समस्या बनने वाली है. क्योंकि, कनाडा ने खुद ही इन अलगाववादी तत्वों को अपने यहां पनपने का मौका दिया है. और, एक भारतीय कहावत है कि लोग जो बोते हैं, वही काटते हैं. आसान शब्दों में कहें, तो इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि कनाडा का हाल भी लेबनान जैसा हो जाए.

लेबनान में यही हुआ था?

मिडिल ईस्ट का एक देश है लेबनान. कुछ दशकों पहले तक लेबनान भी एक लोकतांत्रिक देश हुआ करता था. लेबनान का माहौल धर्मनिरपेक्ष और सहअस्तित्व की भावना को बढ़ाने वाला माना जाता था. क्योंकि, यहां पर मरोनाइट्स ईसाई, शिया और सुन्नी मुस्लिम, ग्रीक रुढ़िवादी और ड्रूज एक साथ रहते थे. लेकिन, द्वितीय विश्व युद्ध के जब लेबनान को फ्रांस से आजादी मिली. तब तक यहां बड़े स्तर पर जनसांख्यिकीय परिवर्तन हो चुका था. आजादी के समय लेबनान में एक अलिखित समझौता किया गया कि देश का राष्ट्रपति मरोनाइट ईसाई, संसद का स्पीकर शिया मुस्लिम, प्रधानमंत्री सुन्नी मुस्लिम और डिप्टी स्पीकर ग्रीक रुढ़िवादी होगा. लंबे समय तक इसी समझौता के हिसाब से सरकार चलती रही.

उस समय तक लेबनान की राजधानी बेरूत आर्थिक और व्यापार का केंद्र बन चुकी थी. बेरूत को पूर्व का पेरिस कहा जाने लगा था. 1948 में लेबनान ने इजरायल के खिलाफ जंग में अरब देशों का समर्थन किया. जिसके बाद इजरायल से लेबनान के रिश्ते बिगड़ने लगे. 1956 तक लेबनान में मरोनाइट्स ईसाई बहुसंख्यक थे. लेकिन, इनके संख्या उस दौरान होने वाले पलायन की वजह से तेजी से गिरने लगी. दरअसल, मिडिल ईस्ट के तमाम देशों से आने वाले प्रवासियों, जिनमें बड़ी संख्या फिलिस्तीनी शामिल थे, को लेबनान में ही शरण मिलती थी. क्योंकि, इन फिलिस्तीनी प्रवासियों को किसी अन्य मुस्लिम देश ने अपने यहां जगह देने से इनकार कर दिया था. और, 1958 में लेबनान के मुस्लिमों ने देश को यूनाइटेड अरब रिपब्लिक का हिस्सा बनाने के लिए विद्रोह कर दिया.

इस विद्रोह के बाद लेबनान की सत्ता में बदलाव हुआ. वहीं, 1970 में जॉर्डन के खिलाफ युद्ध लड़ रहे फिलिस्तीनी लड़ाकों की हार हुई. तो, उन्होंने भी लेबनान में ही आकर शरण ली. जिसके बाद 1975 में लेबनान में गृह युद्ध छिड़ गया. करीब दो दशकों तक गृह युद्ध की आग में झुलसने के बाद लेबनान अब मुस्लिम देश के तौर पर जाना जाता है. और, वहां पर लोकतंत्र केवल कहने के लिए ही बचा हुआ है. आसान शब्दों में कहें, तो लेबनान ने जिन फिलिस्तीनियों को शरण दी. उनके ही आतंकी संगठनों इस देश के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया. और, जनसांख्यिकीय बदलाव के चलते मरोनाइट्स ईसाई अब अल्पसंख्यक हो चुके हैं. और, अब लेबनान एक मुस्लिम देश बन चुका है.

http://dhunt.in/EVRu0?s=a&uu=0x5f088b84e733753e&ss=pd Source : “Ichowk”

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